शिमला: अक्सर हम दोस्तों, परिवार के बीच लोकोक्तियों और मुहावरों का इस्तेमाल करते हैं. मुहावरे भाषा को सुंदर, प्रभावशाली और जीवंत बनाते हैं. बातचीत में इनका इस्तेमाल संवाद को और भी रोचक और अभिव्यक्ति में चार चांद लगा देता है. ये विचारों को संक्षिप्त और सटीक रूप में व्यक्त करते हैं. लोकोक्तियों में सामाजिक बुराईयों पर ऐसे व्यंग्य भी कस दिए जाते हैं, जिससे सामने बैठे व्यक्ति को बुरा महसूस भी नहीं होता है.
ये लोकोक्तियां, मुहावरे हिंदी भाषा की उत्पति से ही इसके संग्रह में जुड़ना शुरू हुए. इसमें उर्दू, फारसी, अरबी शब्दों का इस्तेमाल खूब होता है, विदेशी भाषाओं के शब्द समय और स्थान के अनुरूप अप्रभंशित हो गए. इससे कई मुहावरों और लोकोक्तियां ही गलत बोली जाने लगी. आइए हिमाचल भाषा विज्ञान विभाग में काम कर चुकी मीतू माथूर से हिंदी दिवस पर कुछ मुहावरे/लोकोक्तियों के बारे में जानते हैं जो अक्सर गलत बोली जाती हैं?
अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान
आपने दोस्तों या परिवार में किसी को कई बार इस लोकोक्ति को बोलते हुए सुना होगा, लेकिन क्या कभी सोचा है कि आखिर में गधे का पहलवानी से क्या लेना-देना है? असल में ऐसी कोई लोकोक्ति ही नहीं है. इसमें इस्तेमाल हुआ ‘गधा’ शब्द अपभ्रंश यानी बिगड़ा हुआ रूप है. सही शब्द है ‘गदा’ है. फारसी भाषा में ‘गदा’ का अर्थ भिखारी होता है. ऐसे में सही मुहावरा है ‘अल्लाह मेहरबान तो गदा पहलवान’ यानी आप पर ऊपर वाले की कृपा हुई तो आप अपनी बुरी स्थिति में भी किसी से कम नहीं रहेंगे और आपके अच्छे दिन जरूर आएंगे.
अक्ल बड़ी या भैंस
इस लोकोक्ति का हम कई बार दोस्तों और घर वालों के साथ इस्तेमाल कर देते हैं. जब हम इसमें भैंस शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम ताकत और बुद्धि की तुलना करते हैं. यहां भैंस को ताकत के प्रतीक के रूप में दर्शाया जाता है, लेकिन असल में इस मुहावरे में भैंस शब्द ही नहीं है. इसमें मूल शब्द है बैस. बैस शब्द संस्कृत के वयस् शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है. वयस् का संस्कृत में अर्थ होता है होता है उम्र. ऐसे में सही मुहावरा है अक्ल बड़ी या बैस. इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति के महत्व को उसके बौद्धिक स्तर या उम्र से आंकना चाहिए या नहीं? तो जाहिर है कि किसी भी व्यक्ति का महत्व उसकी उम्र से नहीं अक्ल से आंकना चाहिए. अक्ल बड़ी या भैंस नाम की कोई लोकोक्ति नही है.
झक मारना या झख मारना
जब कोई फालतू का काम करके अपना समय व्यर्थ करता है तो हम ये मुहावरा कह देते हैं कि क्यों झक मार रहे हो. इस मुहावरे में झक शब्द ही नहीं है. इसमें सही शब्द झख है ना की झक. साफ, चमकीला चीज को झक कहते हैं, तो फिर आप सोच रहे होंगे कि झक शब्द का इस्तेमाल हम व्यर्थ समय बर्बाद करने के लिए क्यों कर रहे हैं. आइए आपकी समस्या का समाधान कर देते हैं. दरअसल सही मुहावरा है झख मारना. झख शब्द संस्कृत के झष शब्द से निकला है. ऐसे में सही मुहावरा झख मारना है. झख मारना इसे आप मक्खी मारने से जोड़ सकते हैं, जिस तरह से मक्खी मारना का उपयोग समय बर्बाद करने के लिए किया जाता है उसी तरह से समय बर्बाद करने को झख मारना कहा जाता है.
खेत खाए गधा मार खाए जुलाहा
जब गलती कोई और करता है और उसकी सजा किसी दूसरे निर्दोष को मिलती है तो उस समय हम ये मुहावरा एकदम गलत है. असल में यहां ‘जुलाहा’ शब्द के स्थान पर ‘जो रहा’ है. यानी असल कहावत है ‘खेत खाए गधा मार गए जो रहाट. यानी गलती करने वाला तो मौके से चला गया और जो वहां मौके पर मिला या रह गया उसे ही कसूरवार मानकर उस गलती की सजा दी गई.
धोबी का कुत्ता घर का न घाट
बिना काम के यहां वहां घूमने वाले व्यक्ति के बारे में इसे मुहावरे का इस्तेमाल किया जाता है. कुछ भाषा वैज्ञानिकों का कहना है कि इस मुहावरे में मूल शब्द धोबी का ‘कुत्ता की जगह कुतका’ सही शब्द है. अब इस मुहावरे में कुत्ता आएगा या कुतका? कुतका तुर्की का शब्द है, जिसका अर्थ डंडा या सोठा होता है. धोबी भी घाट पर कपड़े धोते समय लकड़ी के छोटे डंडे, जिसे घर में थापी भी कहते हैं का इस्तेमाल कर कपड़े धोते है. इसी थापी या डंडे के लिए कुतका शब्द का इस्तेमाल हुआ था. धोबी कपड़े धोने के बाद इस डंडे को न घाट पर छोड़ते थे न घर लाते थे, क्योंकि घर पर उसकी कोई जरूरत नहीं होती थी और न ही कपड़े धोने के बाद घाट पर. ये डंडा (कुतका) घाट पर से कोई दूसरा न उठा ले इसलिए इसे रास्ते में कहीं छिपा देते थे. धोबी का कुत्ते से कोई लेना देना नहीं है. घाट पर कपड़े लाने- ले जाने के लिए धोबी के पास कुत्ता नहीं गधा हुआ करता था. इसलिए इसमें सही शब्द धोबी का कुतका है.
कैसे बिगड़े मूल शब्द
अब सोचने वाली बात ये है कि हिंदी के मुहावरों और लोकोक्तियों में अपभ्रंशित शब्द क्यों आए. इस बारे में ठियोग महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्रोफेसर डॉ. सत्यनारायण स्नेही बताते हैं कि ‘हिंदी में संस्कृत, उर्दू, फारसी, अरबी और अन्य विदेशी-देशी भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल होता है. हिंदी में दूसरी भाषाओं से लिए शब्द जब प्रचलन में आए तो ये अपभ्रंशित हो गए. स्थान विशेष में भाषा के उच्चारण के कारण और अपनी सुविधा के अनुसार लोगों ने इन शब्दों को अपनी हिसाब से बोलना शुरू कर दिया. इससे उनका मूल उच्चारण, स्वरूप बिगड़ गया, लेकिन इनके अर्थ पर उतना असर नहीं पड़ा, जैसे हम आज भी अल्लाह मेहरबान तो ‘गदा की जगह गधा’ पहलवान शब्द का इस्तेमाल करते हैं. गदा की जगह गधा बोलने में इसका भाव वही रहता है, ये वही संदर्भित करता है जो हम बोलना चाह रहे है. कुछ एक को छोड़कर अन्य अपभ्रंशित मुहावरों और लोकोक्तियों में भी ऐसा ही होता है. अपभ्रंशित शब्दों के इस्तेमाल से इसके भाव बहुत कम बदलते हैं. अक्ल बड़ी या ‘बैस की जगह भैंस’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इससे भी भाव में कोई ज्यादा फर्क महसूस नहीं होता है. क्योंकि यहां अक्ल की तुलना किसी अन्य से करने को कहा जा रहा है.’
क्या है मुहावरे और लोकोक्तियां
मुहावरे और लोकोक्तियां क्या होती है. इस बारे में डॉ. सत्यनारायण स्नेही ने कहा कि ‘मुहावरे जीवन, अवस्था अनुभव के आधार पर तैयार किया जाते है. ये जीवन में किसी भी अवस्था या स्थिति के अनुसार बनाए जा सकते हैं, जबकि लोकोक्ति लोक जीवन में किसी घटना के घटने पर या किसी अवस्था के जरिए सामाजिक बुराई, विकृति या विडंबना, गलत प्रथा को प्रकट करने के लिए तैयार होती है. इसके जरिए समाजिक बुराई या अन्य विषयों पर व्यंग किया जाता है जैसे नाच न जाने आंगन टेढ़ा. इसमे कहा जा रहा है कि यानी की काम न आने पर कोई बहाना बनाकर उससे छुटकारा पा लेना या कुछ किसी काम, वस्तु में खामियां निकालना. लोकोक्ति तब बनती है जब कोई घटना घटती है. ये इतनी असानी से नहीं बनती है, जबकि मुहावरे अवस्था और अनुभव के आधार पर कभी कहीं भी या बातचीत के दौरान भी बन जाते है. लोकोक्तियां पूर्ण वाक्य होती हैं, जबकि मुहावरों के अंत में क्रिया होती है. जैसे ‘आंखें दिखाना’ में ‘दिखाना’ या ‘आग बबूला होना’ में ‘होना क्रियाएं हैं’.
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