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अक्टूबर में भारी बारिश और भूस्खलन, क्या हैं इस संकट के कारण, विशेषज्ञों से समझें


सुरभि गुप्ता

नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में भारी बारिश के कारण भूस्खलन हुआ, अक्टूबर की शुरुआत में दिल्ली-एनसीआर में बारिश हुई और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में ताजा बर्फबारी हुई. देखा जाए तो अक्टूबर का पहला हफ्ता मौसम के हिसाब से असामान्य रहा. हालांकि मौसम विज्ञानी हाल के वर्षों में अक्टूबर महीने में संभवतः सबसे ज्यादा बारिश का अनुमान लगा रहे हैं, लेकिन जलवायु विशेषज्ञों का सुझाव है कि यह अनियमितता उपमहाद्वीप में मौसम की गतिशीलता में एक गहरे, संरचनात्मक बदलाव को दर्शाती है. साथ ही प्रकृति के प्रकोप को बढ़ाने में मानवीय गतिविधियों के प्रभावों की चेतावनी भी है.

भारत में अक्टूबर में होने वाली अनियमित बारिश का तात्कालिक कारण मौसम प्रणाली पश्चिमी विक्षोभ को माना जाता है. पश्चिमी विक्षोभ भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली प्रणाली है जो पूर्व दिशा में मौसम के मिजाज को प्रभावित करती है, जिससे उत्तर भारत में नमी और मौसम में उतार-चढ़ाव आता है.

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW) के फेलो डॉ. विश्वास चितले के अनुसार, “दक्षिण-पश्चिम मानसून की वापसी के बावजूद, उत्तर-पश्चिम भारत में एक मजबूत पश्चिमी विक्षोभ के कारण महत्वपूर्ण मौसम गतिविधि देखी जा रही है. अक्टूबर के पहले सप्ताह में पंजाब में लगभग 415 प्रतिशत अधिक बारिश दर्ज की गई, हिमाचल प्रदेश में लगभग 248 प्रतिशत और हरियाणा, दिल्ली-एनसीआर और उत्तराखंड में भी असामान्य रूप से भारी बारिश और ओलावृष्टि हुई. 6 अक्टूबर को, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पंजाब सहित कई राज्यों में भारी से बहुत भारी बारिश हुई.”

दार्जिलिंग में भारी बारिश से ढहा दुधिया पुल (ANI)

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, 7 अक्टूबर के बाद बारिश कम होने की संभावना है, लेकिन कुल मिलाकर महीना अभी भी सामान्य से अधिक बारिश के साथ समाप्त हो सकता है, जो दीर्घावधि औसत का लगभग 115 प्रतिशत है.

CEEW के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत की आधी से ज्यादा तहसीलों में पिछले दशक (2011-2022) में अक्टूबर में होने वाली बारिश में 1982-2011 के औसत की तुलना में वृद्धि देखी गई है. डॉ. चितले ने कहा कि यह पैटर्न दक्षिण-पश्चिम मानसून की देरी से वापसी से जुड़ा है, और इस बदलाव के किसानों पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं. उन्होंने कहा, “अक्टूबर का महीना कई खरीफ फसलों की कटाई के मौसम से मेल खाता है. इस दौरान बेमौसम बारिश से फसलों को भारी नुकसान हो सकता है.”

दार्जिलिंग की बाढ़: आपदा की भविष्यवाणी

अक्टूबर में अनियमित बारिश का असर दार्जिलिंग के लिए सबसे ज्यादा विनाशकारी रहा, जहां 3 अक्टूबर को हुई भीषण बारिश के कारण भूस्खलन हुआ, जिसमें कई लोगों की मौत हो गई. साथ ही दुधिया पुल जैसे महत्वपूर्ण रास्ते कट गए. स्थानीय लोग इसे 1968 की बाढ़ के बाद से सबसे भीषण बाढ़ बता रहे हैं, जिसमें एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे.

दार्जिलिंग क्षेत्र के रिकॉर्ड 1899, 1934, 1950 और 1968 में हुए भीषण भूस्खलन को दर्शाते हैं, जिनमें से प्रत्येक अपने पीछे विनाश के निशान छोड़ गया. हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ ने अपने संस्मरण (memoir) में 1950 के भूस्खलन को याद करते हुए बताया कि “एक बहुत बड़ी, कान फाड़ देने वाली, ढहने वाली आवाज” हुई जब उनका घर “ताश के पत्तों के घर” की तरह ढह गया.

दार्जिलिंग में भूस्खलन

दार्जिलिंग में भूस्खलन (ANI)

लेकिन पहाड़ियों की नाज़ुकता अब पूरी तरह प्राकृतिक नहीं रही. पर्यावरण विशेषज्ञ पांच बड़े बदलावों की ओर इशारा करते हैं जिन्होंने बार-बार आने वाले खतरों को पूरी तरह से विनाशकारी आपदाओं में बदल दिया है:

जनसंख्या विस्फोट और अनियंत्रित निर्माण: पिछले 30 वर्षों में “जमीन और संपत्ति खरीदने की होड़” ने नाज़ुक ढलानों पर बोझ डाला है.

  • बारिश के बदलते पैटर्न: लगातार मानसूनी रिमझिम बारिश की जगह अचानक, मूसलाधार वर्षा ने ले ली है जिसे मिट्टी सोख नहीं पाती.
  • अपना रास्ता बदल रही नदियां: नदी की धाराएं तेजी से बस्तियों पर आक्रमण कर रही हैं, सड़कों और घरों को नष्ट कर रही हैं.
  • भारी बुनियादी ढांचा: जलविद्युत परियोजनाएं, सड़कें और होटल इस क्षेत्र की सीमित जल वहन क्षमता पर हमला कर रहे हैं.
  • नदी तल पर अतिक्रमण: बाढ़ के मैदानों पर बस्तियों ने पहाड़ियों की प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित किया है.

दिल्ली के पर्यावरणविद् मनु सिंह के मुताबिक, ये संकट न केवल अनियमित मौसम को दर्शाते हैं, बल्कि मानवीय विकल्पों के परिणामों को भी दर्शाते हैं. सिंह ने कहा, “पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में, हम न केवल असामान्य मौसम की घटनाओं को देख रहे हैं, बल्कि एक गंभीर पारिस्थितिक सत्य का भी खुलासा हो रहा है, कि हमारे अपने विकल्प प्रकृति के प्रकोप को बढ़ा रहे हैं.”

दिल्ली और उसके आसपास अक्टूबर में हुई बेमौसम बारिश, असम और बिहार में आई विनाशकारी बाढ़, हिमाचल और उत्तराखंड में बादल फटना, ये सभी जलवायु तंत्र के संकटग्रस्त होने के संकेत हैं. सिंह ने जोर देकर कहा कि जो घटनाएं कभी दुर्लभ थीं, वे अब नियमित रूप से हो रही हैं.

दार्जिलिंग में अक्टूबर में भारी बारिश से उफान पर नदी

दार्जिलिंग में अक्टूबर में भारी बारिश से उफान पर नदी (ANI)

उन्होंने कहा, “दार्जिलिंग की नाजुक पहाड़ियों में, जब अंधाधुंध निर्माण और वनों की कटाई धरती की मजबूती छीन रही है, तो भूस्खलन को अब ‘प्राकृतिक’ नहीं कहा जा सकता. ओडिशा और बांग्लादेश के तटों पर, लाखों लोग बढ़ते समुद्र जल स्तर और प्रचंड चक्रवातों का सामना कर रहे हैं, हालांकि इस संकट के लिए उनकी जिम्मेदारी सबसे कम है. यह त्रासदी न केवल पर्यावरणीय है, बल्कि मानवीय भी है.”

उन्होंने चेतावनी दी कि जलवायु परिवर्तन अब तूफानी बादलों को बढ़ावा दे रहा है जो अचानक मूसलाधार बारिश और तेज हवाएं लाते हैं. सिंह ने कहा, “हर बारिश एक संभावित आपदा बन जाती है.”

जलवायु परिवर्तन और लापरवाह विकास

पर्यावरणविद् हर विसंगति को जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रमाण मानने के प्रति आगाह करते हैं, लेकिन वे इस बात पर सहमत हैं कि यह एक त्वरित कारक है, खासकर जब गैर-टिकाऊ विकास इसके साथ जुड़ जाता है. चिंतन पर्यावरण अनुसंधान एवं कार्य समूह की संस्थापक भारती चतुर्वेदी ने कहा, “हम बदलते मौसम के मिजाज के लिए कई कारकों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये बहुत तेजी से बदल रहे हैं, जिसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन है, लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमने अपने परिदृश्य को कैसे विकसित किया है.”

दार्जिलिंग के मिरिक में भूस्खलन के बाद क्षतिग्रस्त घर का दृश्य

दार्जिलिंग के मिरिक में भूस्खलन के बाद क्षतिग्रस्त घर का दृश्य (ANI)

उन्होंने कहा कि हिमालय “भूवैज्ञानिक रूप से युवा और प्राकृतिक रूप से नाजुक” है, फिर भी तेज और अनियोजित विकास ने इसकी कमजोरी को और बढ़ा दिया है. चतुर्वेदी ने कहा, “उदाहरण के लिए, सिक्किम को ही लीजिए. यह अविश्वसनीय रूप से सुंदर लेकिन बेहद नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है. होमस्टे और पर्यटन में वृद्धि के साथ, इसकी वहन क्षमता चरमरा गई है.” उन्होंने कहा, “हर जगह की एक सीमा होती है कि वह कितनी आबादी, बुनियादी ढांचे और पर्यटन को संभाल सकती है, और कई हिमालयी क्षेत्रों में हम इस सीमा को पार कर चुके हैं. इसकी कीमत जान-माल के तत्काल नुकसान से कहीं ज्यादा है.”

उन्होंने आगे कहा, “सिक्किम के जंगल, जैसे कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान के जंगल, जैव विविधता को सहारा देते हैं जो दवा उद्योग के लिए बेहद जरूरी है. जब बाढ़ या भूस्खलन आते हैं, तो न सिर्फ जानें जाती हैं, बल्कि आजीविका, पारिस्थितिकी तंत्र और आपूर्ति श्रृंखलाएं भी बाधित होती हैं.”

भारती चतुर्वेदी ने बाढ़ के मैदानों पर निर्माण के एक राष्ट्रव्यापी चलन की ओर भी इशारा किया, जो बाढ़ के दौरान नदियों के प्राकृतिक विस्तार को रोकता है. उन्होंने चेतावनी दी, “जब हम पारिस्थितिक सीमाओं की अनदेखी करते हैं, तो आपदाएं अवश्यंभावी (inevitable) हो जाती हैं.”

संकट अप्रत्याशित नहीं

भारत के शीर्ष वैज्ञानिक और पर्यावरण एजेंसियां ​​लंबे समय से पूर्वी हिमालय में बढ़ती अस्थिरता की चेतावनी दे रही हैं. इसरो द्वारा प्रकाशित भारत का भूस्खलन एटलस 2023, देश के सबसे अधिक भूस्खलन प्रभावित जिलों में दार्जिलिंग को 35वें स्थान पर रखता है. सेव द हिल्स जैसे स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों ने सोशल मीडिया पर बार-बार पूर्व चेतावनियों को चिह्नित किया है.

2023 में सिक्किम को तबाह करने वाली ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) भी एक पूर्वानुमानित घटना थी. सिक्किम मानव विकास रिपोर्ट (2001) ने ल्होनक झील के टूटने के जोखिम की पहचान की थी, जिसने आखिरकार एक प्रमुख जलविद्युत परियोजना को नष्ट कर दिया और सिक्किम के सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 60 प्रतिशत के बराबर नुकसान पहुंचाया, जिसका प्रभाव दार्जिलिंग तक भी पहुंचा.

दार्जिलिंग का भविष्य भारत के लिए क्यों अहम

अपने तात्कालिक मानवीय नुकसान के अलावा, दार्जिलिंग की अस्थिरता के रणनीतिक और आर्थिक निहितार्थ भी हैं. यह जिला भारत के संकरे “चिकन नेक” गलियारे पर स्थित है, जो मुख्य भूमि को पूर्वोत्तर से जोड़ता है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र है. इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था, जो ऐतिहासिक रूप से चाय, पर्यटन और शिक्षा पर आधारित है, बार-बार होने वाली जलवायु आपदाओं से कमजोर हो रही है. विशेषज्ञों ने पूर्वी हिमालय में जलवायु और आपदा प्रबंधन के लिए एक समर्पित राष्ट्रीय संस्थान के निर्माण का आह्वान किया है.

कुर्सियांग (Kurseong) स्थित ऐतिहासिक फॉरेस्ट रेंजर्स कॉलेज (Forest Rangers College) को क्षेत्रीय जलवायु अनुसंधान केंद्र में बदलने का प्रस्ताव कथित तौर पर पर्यावरण मंत्रालय में वर्षों से अटका हुआ है. जैसा कि एक विशेषज्ञ ने तर्क दिया, “इसकी संवेदनशील स्थिति को देखते हुए, दार्जिलिंग के विकास को अब राष्ट्रीय सुरक्षा और अस्तित्व के नजरिये से देखा जाना चाहिए.”

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