25 वर्षों में इन दिग्गज नेताओं का पहाड़ से हुआ पॉलिटिकल पलायन, मैदान में बनाया ‘घर’, देखें लिस्ट (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
नवीन उनियाल की रिपोर्ट:
देहरादून: पलायन पर चिंता जताने वाले राजनेता अक्सर खुद ही पलायन का रास्ता इख्तियार कर लेते हैं. बात मैदानी जिलों में आशियाना तलाशने की हो या फिर अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाने की, हर मामले में नेताओं की करनी उनकी कथनी से इतर नजर आती है. उत्तराखंड में पलायन पर चिंता जताने वाले ऐसे ही नेताओं की भरमार है जिन्होंने पहाड़ी मूल को छोड़कर मैदानी सियासत पर भरोसा किया. उत्तराखंड रजत जयंती वर्ष पर ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट
वैसे तो पलायन को जरूरत से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन कई मायनों में संपन्नता भी पलायन की वजह है. खैर इस पर तो राज्य स्थापना के बाद से ही हर कोई चिंता जताता रहा है लेकिन फिलहाल चर्चा उन नेताओं के पलायन को लेकर हो रही है जिनके भाषणों में तो पलायन का दर्द है लेकिन वे खुद पलायन से अपने आप को अलग नहीं कर पाए.
बड़े नेताओं का पॉलिटिकल पलायन (ETV Bharat)
हरीश रावत-त्रिव्रेद्र ने किया पलायन: इस मामले में बड़े नेताओ का रिकॉर्ड ज्यादा चिंता जनक दिखाई देता है. इसमें बाद हरीश रावत, त्रिवेंद्र सिंह अपने मूल क्षेत्र से हटकर मैदानी जिलों में राजनीतिक जमीन को तलाशते नजर आए. हरीश रावत मूल रूप से अल्मोड़ा जिले के रहने वाले हैं. उन्होंने कुमाऊं की मैदानी सीटों से लेकर गढ़वाल में हरिद्वार जैसे मैदानी जिलों तक में राजनीतिक रूप से अपना भाग्य आजमाने का पूरा प्रयास किया. इसी तरह भारतीय जनता पार्टी के त्रिवेंद्र सिंह रावत मूल रूप से पौड़ी जिले के रहने वाले हैं. उन्होंने भी पहले देहरादून के डोईवाला और फिर लोकसभा के रूप में हरिद्वार जिले में अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाया.
बहुगुणा परिवार ने भी छोड़ा पहाड़: उत्तराखंड के बड़े नेता विजय बहुगुणा ने भी राजनीतिक पलायन का रास्ता चुना. विजय बहुगुणा पौड़ी जिले के बुघाणी गांव के रहने वाले हैं. उनकी शिक्षा दीक्षा इलाहाबाद में हुई. बाद में जब उन्होंने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की तो वे पहले टिहरी लोकसभा सीट पर जीतकर संसद पहुंचे. बाद में उन्होंने मैदानी सीट सितारगंज से विधायक बनकर विधानसभा के सदस्य के रूप में अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ाया. खास बात यह है कि उनके बेटे सौरभ बहुगुणा भी मैदानी सीट सितारगंज से चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचते हैं. फिलहाल वह उत्तराखंड में धामी सरकार के कैबिनेट मंत्री भी हैं.

लीडर्स पॉलिटिकल पलायन (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
हरक सिंह ने भी छोड़ी मूल सीट: हरक सिंह रावत भी ऐसे ही नेताओं में शुमार है. वे अपनी विधानसभा सीट छोड़कर दूसरे क्षेत्र में चुनाव लड़ते रहे हैं. यही नहीं मैदानी जिले में चुनाव लड़ने को लेकर भी वह इच्छा जता चुके हैं. हालांकि, हरिद्वार लोकसभा सीट से उन्हें चाहते हुए भी टिकट नहीं मिल पाया था, लेकिन इससे पहले वह कोटद्वार और रुद्रप्रयाग विधानसभा से चुनाव लड़कर अपनी मूल सीट से पलायन करते हुए दिखाई दिए हैं.
बीजेपी-कांग्रेस में लंबी चौड़ी लिस्ट: युवा चेहरे के रूप में देखें तो हरीश रावत की बेटी अनुपम रावत ने भी हरिद्वार की ग्रामीण सीट को चुनकर मैदानी क्षेत्र पर ही भरोसा जताया. इसी तरह भाजपा विधायक खजान दास धनोल्टी से विधायक रहे. टिहरी जिले के मूल निवासी होने के बावजूद उन्होंने देहरादून की राजपुर सीट पर चुनाव लड़कर विधानसभा का रास्ता इख्तियार किया. इस मामले पर खजानदास सफाई देते हुए कहते हैं कि वह टिहरी के रहने वाले हैं. वहां से चुनाव भी लड़ते रहे हैं, लेकिन, जिस सीट पर वह लड़ते थे वह आरक्षित घोषित नहीं हो पाई. जिसके कारण उन्हें देहरादून पलायन करना पड़ा. हालांकि, टिहरी में भी ऐसी सीटें थी जो आरक्षित थी, लेकिन उन्होंने मैदानी जिले देहरादून का ही रुख करना पसंद किया.

लीडर्स पॉलिटिकल पलायन (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
राजनीतिक पलायन के लिए मुफीद मैदान: ऐसे राज्य में एक दो नहीं बल्कि कई नेता हैं जिन्होंने देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल के साथ ही उधम सिंह नगर जिले को राजनीतिक पलायन के लिए चुना. इन सभी ने अपने मूल पर्वतीय जनपद को छोड़कर मैदान की राजनीति को ही आगे बढ़ाया. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गणेश गोदियाल कहते हैं राजनेता अपनी सहूलियत के हिसाब से राजनीतिक पलायन कर रहे हैं. इसमें तमाम नेताओं के नाम शुमार हैं, इसके पीछे वे कई कारण भी गिना रहे हैं.

इन नेताओं ने भी किया पॉलिटिकल पलायन (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
इन नेताओं ने भी छोड़ी मूल सीट: राजनीतिक रूप से पलायन करने वालों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, विधायक मुन्ना सिंह चौहान, विनोद चमोली, गणेश जोशी, और बृजभूषण गैरोला का नाम भी शामिल हैं. हालांकि, राजनीतिक पलायन के पीछे सीटों के आरक्षित होने मूल सीट पर मुफीद स्थिति न रहने जैसी बातें भी मुख्य मानी जाती हैं.

पॉलिटिकल पलायन की वजह (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
पॉलिटिकल पलायन की वजह: बात केवल विधानसभा या लोकसभा सीटों को मैदानी जिलों में चुनने की ही नहीं है बल्कि अधिकतर नेता ऐसे हैं जिन्होंने अपने घर भी मैदानी जिलों में स्थापित कर लिए हैं. प्रदेश में पलायन के चलते मैदानी जिलों में भी पहाड़ी मूल के लोगों के मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी हो चुकी है. पर्वतीय राजनेताओं को भी यह बात मैदानी जिलों में चुनाव लड़ने के लिए आकर्षित करती है. इसके अलावा परिसीमन होने के बाद पर्वतीय जिलों की सीटें कम हुई हैं. मैदानी जिलों में सीटें बढ़ी हैं. ऐसे में चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा संभावनाएं मैदानी जिलों में ही हैं. जिसके कारण पर्वतीय मूल का होने के बावजूद राजनेता मैदानी जिला में अपना भाग्य आजमा रहे हैं.

खजान दास (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
मैदानी जनपदों में चुनाव लड़ना पर्वतीय सीटों के मुकाबले ज्यादा आसान होता है. पर्वतीय जनपदों में चुनाव प्रचार से लेकर लोगों तक अपनी पैठ बनाना ज्यादा मुश्किल है. भौगोलिक स्थिति विषम होने के कारण राजनेताओं को कई किलोमीटर पैदल भी चलना पड़ता है. जिसके कारण पर्वतीय जिलों में आम जनता तक पहुंचाना न केवल ज्यादा महंगा है बल्कि ज्यादा समय देने वाला भी है.
कई बार नेता एक ही सीट पर एक से ज्यादा बार जीतने के बाद एंटी इनकंबेंसी के डर से भी उस सीट को छोड़ देते हैं. जिसके बाद ने मैदानी सीट की ओर रुख करते हैं. यहां से लड़ना ज्यादा सरल और सेफ माना जाता है.

गणेश गोदियाल (ग्राफिक्स : ETV Bharat)
रजत जयंती वर्ष पर भी पलायन को लेकर तमाम लोग अपनी बात रख रहे हैं. राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर क्षेत्रीय दल भी इस पर चिंता जताते रहे हैं. हैरत की बात यह है कि इस चिंता को जताने वाले राजनीतिक दलों के मुख्यालय भी मैदानी जिलों में ही हैं. इतना ही नहीं उत्तराखंड के एकमात्र क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल का मुख्यालय भी देहरादून में ही मौजूद है. इस तरह पलायन के मामले में केवल आम जनता ही नहीं बल्कि राजनेता भी खुद को पलायन करने से नहीं रोक पा रहे हैं.
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