नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट मामले में 2014 में दिए गए पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले की सत्यता पर संदेह व्यक्त किया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 30 के खंड (1) के तहत आने वाले अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों, चाहे वे सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, को शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE Act) के संपूर्ण दायरे से छूट दी गई थी.
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने कहा, “हम बेहद विनम्रता के साथ यह टिप्पणी करते हैं कि प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट (2014) मामले में लिए गए फैसले ने अनजाने में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की नींव को ही खतरे में डाल दिया होगा.”
अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकार से संबंधित है. दो जजों की पीठ ने कहा कि अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम से छूट देने से समान स्कूली शिक्षा का दृष्टिकोण विखंडित होगा तथा अनुच्छेद 21A द्वारा परिकल्पित समावेशिता और सार्वभौमिकता का विचार कमजोर होगा.
अनुच्छेद 21A शिक्षा के अधिकार से संबंधित है और कहता है, “राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को ऐसी व्यवस्था से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा, जैसा राज्य कानून द्वारा निर्धारित करेगा.”
पीठ ने कहा कि उसे डर है कि जाति, वर्ग, पंथ और समुदाय के बच्चों को एकजुट करने के बजाय, संविधान पीठ का फैसला साझा शिक्षण स्थलों की परिवर्तनकारी क्षमता को विभाजित और कमजोर करता है.
पीठ ने कहा कि अगर लक्ष्य एक समान और एकजुट समाज का निर्माण करना है, तो ऐसी छूट हमें विपरीत दिशा में ले जाती हैं. पीठ ने कहा, “सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के प्रयास के रूप में शुरू की गई इस पहल ने अनजाने में एक नियामक खामी पैदा कर दी है, जिसके कारण शिक्षा के अधिकार अधिनियम द्वारा निर्धारित व्यवस्था को दरकिनार करने के लिए अल्पसंख्यक दर्जा चाहने वाले संस्थानों की संख्या में वृद्धि हुई है.”
पीठ ने कहा कि संबंधित क्षेत्र के प्राधिकारियों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 30(1) को कभी भी अल्पसंख्यक संस्थानों को सभी प्रकार के विनियमन से पूर्ण छूट प्रदान करने के रूप में नहीं समझा गया है. पीठ ने अपने 110 पृष्ठों के फैसले में कहा, “ऐसे समय में भी जब निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने का वादा अनुच्छेद 45 के तहत केवल एक निर्देशक सिद्धांत था और अभी तक इसे मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया था, इस न्यायालय ने केरल शिक्षा विधेयक (supra) के संबंध में अनुच्छेद 30(1) के तहत अधिकारों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को बढ़ावा देने के राज्य के व्यापक संवैधानिक कर्तव्य के साथ सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता को मान्यता दी थी.”
पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों का संचालन करने का अधिकार राज्य को सहायता प्रदान करने के लिए उचित शर्तें निर्धारित करने से नहीं रोकता है, जिसमें शैक्षिक मानकों को बनाए रखने और समावेशिता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई शर्तें भी शामिल हैं.
प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ मामले में अपने 2014 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शिक्षक पात्रता परीक्षा अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगी.
जस्टिस दत्ता की अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ ने महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों के कई मामलों पर विचार किया. पीठ ने कहा कि गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों के संबंध में, अनुच्छेद 30 की व्याख्या अल्पसंख्यक समुदायों की सांस्कृतिक, भाषाई और शैक्षिक पहचान को संरक्षित करने और उनके कल्याण को बढ़ावा देने के इसके अंतर्निहित उद्देश्य से निर्देशित होनी चाहिए. पीठ ने कहा, “जैसा कि केरल शिक्षा विधेयक (सुप्रा) के संदर्भ में स्पष्ट किया गया है, ‘कुछ बाहरी लोगों’ को शामिल करने मात्र से न तो अनुच्छेद 30 का उद्देश्य समाप्त होता है और न ही यह ऐसे संस्थानों के अल्पसंख्यक चरित्र को कमजोर या परिवर्तित करता है.”
प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट (2014) के संदर्भ में पीठ ने कहा, “हमें यह देखकर दुख हो रहा है कि अल्पसंख्यक का दर्जा शिक्षा के अधिकार अधिनियम के शासनादेश को दरकिनार करने का एक माध्यम बन गया है.”
दो न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजने का निर्णय लिया ताकि उसके द्वारा तैयार किए गए प्रश्नों को वृहद पीठ को सौंपे जाने पर विचार किया जा सक. पीठ ने यह भी घोषित किया कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत टीईटी योग्यता प्राप्त करना अनिवार्य है. पीठ ने कहा, “सेवारत शिक्षकों (उनकी सेवा अवधि चाहे कितनी भी हो) को भी सेवा में बने रहने के लिए टीईटी उत्तीर्ण करना आवश्यक होगा.”
पीठ ने अपने निर्देशों में कहा कि जिन शिक्षकों की आज की तारीख में पांच वर्ष से कम सेवा शेष है, वे टीईटी उत्तीर्ण किए बिना सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करने तक सेवा में बने रह सकते हैं. पीठ ने कहा, “हालांकि, यदि कोई ऐसा शिक्षक (जिसकी सेवा अवधि पांच वर्ष से कम शेष है) पदोन्नति की इच्छा रखता है, तो उसे टीईटी उत्तीर्ण किए बिना पात्र नहीं माना जाएगा.”
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इशात-ए-तालीम ट्रस्ट और अन्य द्वारा दायर याचिका पर आया.
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