नवीन उनियाल, देहरादून: आजादी के बाद पिछले 78 सालों में बहुत कुछ बदला है. यहां तक कि स्वतंत्रता की लड़ाई को ताकत देने वाला गांधी जी का चरखा भी अब बिसरे दिनों की बात हो गया है. कभी घर-घर में जिस चरखे की घरघराहट सुनाई देती थी, उसका प्रचलन मौजूदा समय में करीब-करीब खत्म सा हो गया है. स्वतंत्रता दिवस पर आजादी का प्रतीक रहे चरखे को लेकर ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट पढ़िए.
गांधी जी के चरखे ने दिया था स्वदेशी वस्त्रों को अपनाने का संदेश: दुनिया भर के देशों में अर्थव्यवस्था की लड़ाई इन दिनों अपने चरम पर है. शायद यही कारण है कि भारत भी मेक इन इंडिया (Make in India) को प्रमोट कर अर्थव्यवस्था को ताकत देने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, समय-समय पर स्वदेशी उत्पाद अपनाकर देश को मजबूत करने की बात कही जाती रही है, लेकिन स्वदेशी उत्पाद से जुड़ने की ये सोच आजादी से पहले की है. जिसका प्रतीक गांधी जी का वो चरखा रहा है, जिसने स्वदेशी वस्त्रों को अपनाने का संदेश दिया.
बिसराया जाने लगा गांधी जी का चरखा (Video-ETV Bharat)
अब मशीनों से बनाया जा रहा कपड़ों के लिए धागा: मौजूदा दौर में अब आजादी का यह प्रतीक उपयोग से बाहर होता जा रहा है. कपड़ा कातने का साधन यह चरखा खादी वस्त्रों के लिए उपयोग में लाया जाता था, लेकिन समय के साथ कपड़ों के लिए धागे बनाने का काम बड़ी-बड़ी मशीनों से होने लगा और इसके साथ ही चरखा उपयोग से बाहर होता चला गया.
खादी के वस्त्र (फोटो- ETV Bharat)
हालांकि, अब भी खादी उत्पाद के लिए कुछ जगह पर चरखों का उपयोग हो रहा है. तमाम महिला समूह चरखा चलाकर संस्थाओं में इस चरखे की जीवित रखे हुए हैं. खास बात ये है कि यही चरखा चलाकर महिलाएं अपनी रोजी-रोटी भी कमा रही हैं.

गौचर में ‘नंदा-गौरा महोत्सव’ में चरखा चलाते सीएम धामी (फोटो सोर्स- X@pushkardhami)
“हम एक दिन 800 ग्राम से एक किलो ग्राम के बीच धागे की कताई करते हैं. जिसके लिए 270 रुपए से लेकर 360 रुपए तक का मेहनताना मिल जाता है. इससे बच्चों का खर्चा आदि निकल जाता है.”– नीलम, कारीगर
स्वतंत्रता संग्राम के दौर में महात्मा गांधी का चरखा आत्मनिर्भरता और स्वदेशी आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतीक बना था. गांधी जी ने चरखे को केवल कपड़ा कातने का साधन नहीं, बल्कि अंग्रेजी वस्त्रों के बहिष्कार और आर्थिक स्वतंत्रता का हथियार बनाया. गांव-गांव में चरखे की घरघराहट स्वदेशी भावना की धड़कन थी, जिसने आजादी की लड़ाई को नई ताकत दी.

चरखा चलाते बापू की ऐतिहासिक तस्वीर (फोटो सोर्स- X@GandhiSmriti_)
खादी उत्पादन में बड़ी-बड़ी मशीनों ने ले ली चरखे की जगह: मौजूदा समय में चरखे का उपयोग लगातार घटता जा रहा है. खादी उत्पादन में बड़ी-बड़ी मशीनों ने चरखे की जगह ले ली है. एक समय जहां घर-घर में खादी बुनने की परंपरा थी. वहीं अब यह केवल कुछ सीमित इकाइयों और हथकरघा केंद्रों तक सिमट गई है.

खादी कपड़े बनाते की प्रक्रिया (फोटो- ETV Bharat)
खादी के कपड़ों की मांग में भी कमी आई है, जिसका असर पारंपरिक बुनकरों की रोजी-रोटी पर भी पड़ा है. इसके बावजूद खादी में वक्त के साथ नए डिजाइन और एक्सपेरिमेंट भी हो रहे हैं. ताकि, हथकरघा बुनकरों को बाजार उपलब्ध हो सके. खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड की ओर से प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है.

साबरमती आश्रम में चरखा पर हाथ आजमाते अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी पत्नी मेलानिया (फोटो सोर्स- X@ians_india)
“खादी के बाजार को बढ़ाने का प्रयास हो रहा है, खादी में ही कुछ नया करने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है. केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार भी इस दिशा में कुछ नया करके स्थितियों को बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है.”– देव तिवारी, अपर सचिव, खादी विभाग
भारत में लंबे समय तक वस्त्र उद्योग हथकरघा और चरखे पर आधारित रहा है. महात्मा गांधी ने साल 1918 के आस पास चरखे को स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बनाया. इतना ही नहीं 1920 के दशक में चरखा कांग्रेस पार्टी के ध्वज में भी शामिल किया गया. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी चरखे से सूत कातते तस्वीर सामने आई थी.

1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान चरखा चलाते हुए महात्मा गांधी (फोटो सोर्स- X@GandhiSmriti_)
जाहिर है कि भारत के लिए चरखा स्वतंत्रता से जुड़ा होने के कारण बेहद अहम है और आजादी के 78 साल में स्वतंत्रता के इस प्रतीक का अस्तित्व खतरे में दिखा है. वहीं, स्वतंत्रता सेनानी डॉक्टर भारत भूषण ने देश के लिए चरखे का महत्व बताया. उस समय चरखा आत्मनिर्भरता, साधना और सत्याग्रह का प्रतीक भी माना जाता था.

खादी उत्पादन में महिलाओं की अहम भूमिका (फोटो- ETV Bharat)
“आजादी के दौरान चरखा केवल सूत कातने का साधन नहीं था, बल्कि एक अलख थी जो ब्रिटिश हुकूमत की आर्थिक रूप से कमर तोड़ने का प्रतीक था. उस दौरान गांधी जी के आवाहन पर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई थी. कोशिश यही थी कि स्वदेशी अपनाकर न केवल देशवासियों को आत्मनिर्भर बनाया जाए. बल्कि, विदेशी वस्त्रों के व्यवसाय को भी चोट पहुंचाई जाए.”– डॉ. भारत भूषण, स्वतंत्रता सेनानी
17 अगस्त 2002 को हुई थी उत्तराखंड खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड की स्थापना: उत्तराखंड खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड की स्थापना 17 अगस्त 2002 को हुई थी. इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में खादी और ग्रामोद्योग को बढ़ावा देना, कम पूंजी निवेश के साथ छोटे उद्योगों की स्थापना करना, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए बेरोजगार युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना और रोजगार के अवसर सृजित करना है. यह खासकर महिलाओं और कमजोर वर्गों के लिए रोजगार के अवसर सृजित करने में भूमिका निभा रहा है.
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