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उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जिंदा 'शहीद', 25 साल बाद भी हरे जख्म, कब बदेलेंगे हालात?


उत्तराखंड राज्य आंदोलन के जिंदा ‘शहीद’ (Photo courtesy- Mussoorie Martyr Memorial Management Committee And ETV Bharat)

देहरादून: 9 नवंबर 2025 को उत्तराखंड राज्य गठन को 25 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं. राज्य सरकार इन राज्य स्थापना दिवस को रजत जयंती वर्ष के रूप में मना रही है. साथ ही संदेश दिया जा रहा है कि ‘हम रजत जयंती वर्ष में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल होने जा रहे हैं. लेकिन आंदोलन से प्राप्त इस उत्तराखंड राज्य में जिन लोगों ने राज्य गठन के लिए लाठी डंडे और गोलियां खाई, वे लोग आज खुद का महत्व खत्म होने का शब्द बयां करते हैं.

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में कई लोग शहीद हुए, लेकिन कुछ आंदोलनकारी ऐसे भी रहे, जिन्होंने राज्य आंदोलन के समय लड़ाई लड़ी और वे घायल हो गए. उन घायलों में कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो राज्य गठन के 25 साल होने पर भी आज भी बिस्तर पर हैं. अन्य राज्य आंदोलनकारी इन शैयाग्रस्त राज्य आंदोलनकारियों को ‘जिंदा शहीद’ कहकर बुलाते हैं. ऐसे में लंबे समय से राज्य सरकार से मांग की जा रही है कि शैयाग्रस्त राज्य आंदोलनकारियों का इलाज करवाया जाए.

पिछले 30 सालों से क्वाड्रिप्लेजिया बीमारी से जूझ रहे हैं राज्य आंदोलनकारी अमित ओबेरॉय. (VIDEO-ETV Bharat)

उत्तराखंड के ‘जिंदा शहीद’ अमित ओबेरॉय: उत्तराखंड राज्य आंदोलन के ऐसे ही एक ‘जिंदा शहीद’ हैं अमित ओबेरॉय. अमित ओबेरॉय 46 वर्ष के हो चुके हैं. लेकिन उनके पिछले 30 वर्ष बिस्तर पर एक पैराडाइज पेशेंट के तौर पर गुजरे हैं. आज वह एक शैयाग्रस्त रोगी की जिंदगी जी रहे हैं. देहरादून के प्रगति विहार निवासी अमित ओबेरॉय, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान आई पुलिस की चोट की वजह से शैयाग्रस्त की जिंदगी जीने को मजबूर हैं. उत्तराखंड राज्य आंदोलन में घायल हुए अमित ओबेरॉय का शरीर गर्दन से नीचे पूरी तरह से निष्क्रिय है. वह पिछले 30 सालों से ऐसा जीवन जी रहे हैं.

Uttarakhand Silver Jubilee

घटना के 30 साल बाद भी गर्दन से नीचे पूरा शरीर पैरालाइज है. (PHOTO-ETV Bharat)

2 अक्टूबर 1995 की घटना में घायल हुए थे अमित ओबेरॉय: ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए अमित ओबेरॉय बताते हैं कि 2 अक्टूबर 1994 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई बर्बरता की बरसी पर 2 अक्टूबर 1995 को पूरे उत्तराखंड में आंदोलनकारियों ने काले दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया था. जिसके चलते उस दिन सुबह से ही उत्तराखंड के सभी बड़े शहरों में प्रदर्शन चल रहे थे. शाम होते होते प्रदर्शन ने उग्र रूप ले लिया.

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रुड़की के राज्य आंदोलनकारी प्रकाश कांति 1994 में पुलिस की गोली का शिकार हुए थे. (PHOTO- Amit Oberoi)

अमित बताते हैं कि उस दौरान वे मात्र 16 वर्ष के थे और देहरादून स्कॉलर्स होम स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ते थे. अक्टूबर महीने में दशहरे की छुट्टी के चलते अमित भी आंदोलन में कूद पड़े. अमित अकेले नहीं थे, उनके पिता जय कृष्णा ओबेरॉय भी इस आंदोलन में शामिल थे. अमित ने बताया कि उस दिन वह दोपहर खाना खाने के बाद प्रगति विहार अपनी आवास से निकलकर रिस्पना पुल पर हो रहे प्रदर्शन में शामिल हुए.

UTTARAKHAND SILVER JUBILEE

राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती और रवींद्र जुगरान द्वारा अमित ओबेरॉय को सम्मानित करते हुए. (PHOTO- Amit Oberoi)

उन दिनों माहौल ऐसा था कि स्कूली बच्चे, महिलाएं, जवान और बुजुर्ग भी आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे. उन्होंने बताया कि शाम को तकरीबन 8 बजे देहरादून के रिस्पना पुल पर भीड़ काफी उग्र हो गई थी और पुल को पूरी तरह से जाम कर दिया गया था. इस दौरान वहां से किसी बड़े सरकारी अधिकारी का काफिला गुजरा, जिसके कारण पुलिस ने लाठीचार्ज किया. अपने पिता के साथ मौजूद अमित ओबेरॉय इस भीड़ में शामिल थे और जैसे ही पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो उन्हें और उनके पिता दोनों को पुलिस की लाठियां लगी. उनके पिता बुजुर्ग थे, वह वहीं पर गिर गए, लेकिन अमित को जब लाठियां लगी तो उन्होंने भागने की कोशिश की और इस दौरान उनका संतुलन बिगड़ा और वह पुल से नीचे गिर गए.

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मुख्यमंत्री रहते हुए हरीश रावत के साथ राज्य आंदोलनकारी अमित ओबेरॉय. (PHOTO- Amit Oberoi)

अमित कई घंटों तक रिस्पना पुल से गिरकर रिस्पना की सूखी नदी जिसमें काफी मात्रा में पत्थर मौजूद थे, उनके ऊपर पड़े रहे थे. तकरीबन 4 घंटे बाद पुलिस के लोग उन्हें ढूंढने के लिए आए, क्योंकि पुलिस को मालूम था कि उनकी लाठी लगने के बाद एक व्यक्ति पुल से नीचे गिरा है. इसके बाद पुलिस ने उन्हें उठाकर देहरादून कोरोनेशन अस्पताल में भर्ती कराया. जहां डॉक्टरों ने उनकी हालत बेहद नाजुक बताई और उन्हें चंडीगढ़ रेफर कर दिया गया. चंडीगढ़ में फिर अमित ओबेरॉय का इलाज चला, लेकिन इलाज के लिए पैसे नहीं थे तो उनके प्रगति विहार निवास के आसपास के पड़ोसियों ने पैसा इकट्ठे किए और उसे समय 35 हजार रुपए अमित ओबेरॉय के इलाज में खर्च हुआ. इसे वापस चुकाने में पूरे परिवार को काफी लंबा समय लगा.

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पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के साथ राज्य आंदोलनकारी अमित ओबेरॉय. (PHOTO- Amit Oberoi)

क्वाड्रिप्लेजिया से जूझ रहे अमित का मासिक खर्च ₹70 हजार से अधिक: 1995 में पुलिस की लाठी का शिकार हुए अमित ओबेरॉय का जीवन उस घटना के बाद बदल गया. अमित ओबेरॉय बताते हैं कि आज उन्हें मात्र जिंदा रहने के लिए मासिक 70 हजार रुपए से ज्यादा खर्च आता है. शुरुआती दौर सन 1995 से 2000 तक उनका जीवन काफी संघर्ष भरा रहा, हालांकि उसके बाद नई तकनीक और डॉक्टरों की मदद से उन्होंने तमाम इक्विपमेंट और दवाइयां के कारण अपने आप को जिंदा रखा.

30 साल पहले हुए बेटे के साथ घटना को याद कर आज भी सहम जाती हैं उनकी मां नीलम ओबेरॉय. (VIDEO-ETV Bharat)

उन्होंने बताया कि आज वह फुल बॉडी पैराडाइज यानी क्वाड्रिप्लेजिया से जूझ रहे हैं और इस हालत में उन्हें जिंदा रहने के लिए अटेंडेंट, ड्राइवर, सफाई कर्मी, फिजियोथेरेपिस्ट के अलावा इक्विपमेंट और दवाइयों के लिए हर महीने करीब 70 हजार रुपए से ज्यादा का खर्च आता है. उन्होंने बताया कि उनके दो भाई हैं, जो की उत्तराखंड से बाहर अलग-अलग जगह रहते हैं. उनके साथ उनकी 70 वर्षीय मां नीलम ओबेरॉय रहती हैं. उन्होंने बताया कि उनकी माता ही उनकी देखरेख और अटेंडेंट का काम करती थी, लेकिन अब उनकी माता भी बुजुर्ग हो चुकी हैं और उनसे उनकी देखरेख नहीं हो पाती है. जिसके चलते अब उनके सामने जिंदा रहने के लिए और ज्यादा चुनौतियां आने लगी है.

16 साल बाद लगी 10 हजार की पेंशन: आंदोलनकारी अमित ओबेरॉय बताते हैं कि सन 2000 में राज्य गठन के बाद पहली बार तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी, स्थानीय विधायक हरबंस कपूर के कहने पर उनसे मिलने आए थे और उन्होंने उस समय 2 लाख रुपए की मदद की थी. इसके बाद साल 2009 में रमेश पोखरियाल निशंक मुख्यमंत्री थे और तो उस दौरान मुख्यमंत्री का अस्पताल में दौरा हुआ था. इस दौरान उनसे मुलाकात हुई फिर मुख्यमंत्री द्वारा 1 लाख रुपए दिए गए. इसके बाद 2011 में राज्य आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण हुआ तो बड़ी मुश्किलों से उन्होंने अपना राज्य आंदोलनकारी के रूप में चिन्हीकरण करवाया और 2011 में 10 हजार रुपए की पेंशन लगी.

उन्होंने बताया कि यह पेंशन बेहद कम थी, जिससे उनका खर्च नहीं चलता था. इसके बाद जब वह 2018 में ट्रीटमेंट के लिए मैक्स अस्पताल में थे, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत उनसे मिलने आए और उन्होंने 5 लाख रुपए की मदद की. अमित ओबेरॉय बताते हैं कि आज उनके जीवन की बेसिक जरूरतें पूरी करने के लिए भी मासिक 70 हजार से ज्यादा का खर्च आता है, जिसको लेकर लगातार सरकार से मांग की गई कि उनकी पेंशन को बढ़ाया जाए. उन्होंने बताया कि राज्य आंदोलनकारी रविंद्र जुगरान ने काफी प्रयास किया, लेकिन वह भी पेंशन मात्र 10 हजार रुपए ही बढ़ा पाए और अब कुल मिलाकर 20 हजार रुपए की पेंशन सरकार द्वारा दी जाती है, लेकिन खर्च काफी ज्यादा है.

ऐसे ही एक और ‘जिंदा शहीद’ रुड़की में भी: अमित ओबेरॉय बताते हैं कि केवल वो ही नहीं, बल्कि उनके एक और साथी जो कि रुड़की से आते हैं, उन्हें भी राज्य आंदोलन के दौरान चोट लगी थी और आज तक उनका जीवन भी चुनौतियों से गुजर रहा है. रुड़की निवासी राज्य आंदोलनकारी प्रकाश कांति भी 1994 में हुए उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान पुलिस की गोली का शिकार हुए थे. 1994 मुजफ्फरनगर कांड के बाद रुड़की में भी काफी उग्र आंदोलन हुए थे. इस दौरान प्रकाश कांति की कमर में चोट लगी तो उनकी भी रीड की हड्डी में चोट आई और उनके दोनों पैर पैरालाइज हो गए. वह बताते हैं कि जब उनके साथ यह घटना हुई तो उनकी नई-नई शादी हुई थी और उनकी एक बेटी थी.

इस घटना के बाद उनके परिवार पर काफी आर्थिक बोझ आ गया. क्योंकि उनके परिवार की जिम्मेदारी संभालने वाले वह अकेले व्यक्ति थे, लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने संघर्ष किया और अपने ही घर में ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. इसमें उनकी पत्नी ने भी उनका साथ दिया. वर्तमान में उनके पास 250 बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं और इस तरह से उन्होंने अपने जीवन को संघर्षों के साथ आगे बढ़ाया.

‘जिंदा शहीदों’ को पछतावा: अपने जीवन को राज्य आंदोलन के लिए खराब कर चुके शैयाग्रस्त आंदोलनकारी अमित ओबेरॉय बताते हैं कि अब राज्य गठन के 25 साल पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन उसके बावजूद भी जिन उद्देश्यों के साथ राज्य गठन का आंदोलन किया गया था, आज प्रदेश उन उद्देश्यों से काफी दूर है. कभी-कभी उन्हें इस बात का दुख होता है कि यदि ऐसा ही होना था, तो इससे अच्छा था कि वह आंदोलन में शामिल ही नहीं होते और न ही लोगों की जान जाती.

अमित ओबेरॉय बताते हैं कि, जो लोग शहीद हुए आज लोग उन्हें भूलते जा रहे हैं. लेकिन जो लोग शैयाग्रस्त हो गए हैं और पूरी जिंदगी बिस्तर पर गुजर रही है, उनके लिए एक-एक दिन जीवन का गुजारना बेहद मुश्किल है. उन्होंने सरकार से मांग की है कि उनकी सांसे चलती रहे और उनके जीवन की मूलभूत जरूरतें पूरी होती रहे, इसके लिए तकरीबन 70 हजार रुपए से ज्यादा का खर्च आता है, जिसमें कई सारे खर्चे जुड़े हुए हैं. उनकी मांग है कि सरकार उन पर ध्यान दें और उनकी जरूरतों को देखते हुए उनकी पेंशन को बढ़ाएं या फिर अन्य कोई व्यवस्था करें.

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