रामोजी एक्सीलेंस अवॉर्डी अमला अशोक रुइया. (ETV Bharat)
हैदराबाद: 79 वर्ष की उम्र में, अमला अशोक रुइया न तो किसी कार्यकर्ता जैसी तत्परता दिखाती हैं और न ही किसी उद्यमी जैसी दिखावटी. इसके बजाय, उनमें एक ऐसी महिला का आत्मविश्वास है, जिसने ग्रामीण भारत के बारे में एक ऐसी सच्चाई खोज निकाली है जो सबके सामने थी. रुइया, जिन्हें अब व्यापक रूप से “जल माता” यानी भारत की जल माता के रूप में जाना जाता है, को ग्रामीण विकास में रामोजी उत्कृष्टता पुरस्कार 2025 (Ramoji Excellence Awards 2025) से सम्मानित किया गया है. यह सम्मान उनके लिए राज्याभिषेक से ज़्यादा एक महत्वपूर्ण मोड़ जैसा लगता है. उनका काम अब सिर्फ़ पानी की कहानी नहीं रह गया है. यह कहानी है कि कैसे समाज अनुकूलन करते हैं. कैसे मानवीय निर्णय पीढ़ियों तक चलते रहते हैं. और कैसे एक विचार (अगर सही ढंग से गढ़ा जाए) पूरे क्षेत्र की किस्मत बदल सकता है.
चिंगारी: जब रुइया राजस्थान में 1990 के दशक के उत्तरार्ध में पड़े सूखे के बारे में बात करती हैं, तो वह उसे एक विश्लेषक की सटीकता और एक मां की पीड़ा के साथ याद करती हैं. वह ईटीवी भारत को बताती हैं, “खबरों में कहा गया था कि किसान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. अनाज बांटा जा रहा था. पानी के टैंकर भेजे जा रहे थे. मेरे ससुर के ट्रस्ट ने भी योगदान दिया. लेकिन कुछ गड़बड़ लग रही थी. यह कोई समाधान नहीं था; यह तो बस मरहम-पट्टी थी.”
ग्रामीण विकास के लिए रामोजी एक्सीलेंस अवॉर्ड से सम्मानित अशोक रुइया से खास बातचीत (ETV Bharat)
आम धारणा यह थी कि सूखे से पानी की कमी होती है. रुइया ने इसके बजाय भंडारण की कमी देखी. जब टीवी पर सूखे की तस्वीरें आईं, तब वह मुंबई में रह रही थीं. वह शायद ही कभी टीवी देखती थीं. लेकिन उस दिन, एक चीज ने उनका ध्यान खींचा. वह था तपती धूप में, सिर पर धातु के बर्तन रखे, बमुश्किल पानी की तलाश में, कई किलोमीटर पैदल चलती महिलाओं का दृश्य.
वह कहती हैं, “मैं सोचती रही, अगर मॉनसून में पानी आता है, तो हम उसे रोक क्यों नहीं सकते? वह यूं ही बह क्यों जाता है?” यह उनके लिए पहला महत्वपूर्ण क्षण था. वह प्रश्न जो एक त्रासदी को एक परिकल्पना में बदल देता है.
रुइया जल विशेषज्ञों की एक टीम के साथ अपने पति के गृहनगर राजस्थान के सीकर जिले के रामगढ़ शेखावाटी गईं. उन्होंने समाधान सुझाए, लेकिन वे अव्यावहारिक थे. फिर, लगभग संयोगवश, वह एक ऐसे गैर-सरकारी संगठन में गईं, जो भूमि के प्राकृतिक ढलान के अनुरूप पारंपरिक जल संचयन तकनीकों का उपयोग कर रहा था. वह कहती हैं, “यह बात तुरंत समझ में आ गई. यह कोई नई बात नहीं है. हमारे पूर्वजों ने इसे हमसे बेहतर समझा था.”
वह घर लौटीं और एक ऐसा निर्णय लिया जिसने लगभग बीस लाख लोगों के जीवन को बदल दिया. उन्होंने 2003 में अपना स्वयं का फाउंडेशन, आकार चैरिटेबल ट्रस्ट, बनाया. इसलिए नहीं कि उन्हें इसकी जरूरत थी, बल्कि इसलिए कि उन्हें बिना किसी हस्तक्षेप के काम करने की आजादी चाहिए थी.

रामोजी एक्सीलेंस अवॉर्ड 2025 समापन समारोह. (ETV Bharat)
चेक डैम, जिसने कहानी बदल दी: रुइया के मॉडल को समझने के लिए, चेक डैम को ग्रामीण इंजीनियरिंग का एक साधारण, लेकिन शानदार नमूना समझिए. पानी के लिए एक तरह का स्पीड ब्रेकर. बारिश को पहाड़ी से नीचे बहकर रेत और पत्थरों में गायब होने देने के बजाय, चेक डैम पानी को इतनी देर तक रोके रखता है कि धरती उसे सोख ले. वह पूछती हैं, “जब छोटे-छोटे बांध सही तरीके से बनाए जा सकते हैं, तो बड़े-बड़े बांध क्यों बनाए जाएं?”
और फिर एक ऐसा आंकड़ा आता है, जो किसी भी शोधकर्ता को चौंका देगा. इस महीने तक, उनके ट्रस्ट ने बहुत-सा काम किया है. उसमें कुछ खास बातें इस तरह हैं.
आकार चैरिटेबल ट्रस्ट के काम पर एक नजर:
- 1,308 जलाशयों का निर्माण
- 1,353 गांवों का कायाकल्प
- 19 लाख लोगों असर पड़ा
- आर्थिक लाभ बढ़कर ₹3,000 करोड़ प्रति वर्ष
- ग्रामीणों ने निवेश में 30% का योगदान दिया
2006 में, मुंडवारा गांव में पहली परियोजना न सिर्फ़ एक सफलता साबित हुई, बल्कि एक आर्थिक और सांस्कृतिक उत्प्रेरक भी बनी. वह याद करती हैं, “जल स्तर बढ़ने पर कुएं भर गए. कुएं भर गए तो खेतों में फसलें उग आईंं. खेतों में फसलें उगने लगीं तो महिलाओं की आय बढ़ने लगी. महिलाओं की आय बढ़ने पर स्कूलों में नामांकन बढ़ने लगा. और जब लड़कियां स्कूल जाने लगीं तो पूरी सामाजिक पीढ़ी ही बदल गई.”
एक साधारण सा चेकडैम एक सामाजिक क्रांति बन गया था. रुइया इस बदलाव को हल्के आश्चर्य के साथ याद करती हैं. “पहले, महिलाएं पानी लाने के लिए एक किलोमीटर पैदल चलती थीं. लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं. परिवार अपनी बेटियों के लिए वर ढूंढ़ने को लेकर चिंतित रहते थे, क्योंकि कोई भी सूखे गांव में शादी नहीं करना चाहता था. अब? लड़कियां स्कूल जा रही हैं. महिलाएं घी और खोया बेचकर कमाई करती हैं. पुरुषों का शहरों की ओर पलायन बंद हो गया. छोटे-मोटे उद्योग भी शुरू हो गए. सब कुछ बदल गया, क्योंकि पानी घर तक आ गया.”
सामुदायिक भागीदारी की छिपी हुई ज्यामिति: रुइया के मॉडल को मनोवैज्ञानिक रूप से आकर्षक बनाने वाली बात इंजीनियरिंग नहीं, बल्कि अर्थशास्त्र है. आकार ट्रस्ट कभी भी मुफ़्त में पानी नहीं देता. ग्रामीणों को लागत का 30% योगदान देना होता है. वह बताती हैं, “जिम्मेदारी स्वामित्व पैदा करती है. और स्वामित्व परियोजना को टिकाऊ बनाता है.” ग्रामीण, अपना पैसा लगाकर, एक तरह की सामूहिक जवाबदेही बनाते हैं. कोई भी चेकडैम को नुकसान नहीं पहुंचाता. कोई भी पानी का कुप्रबंधन नहीं करता. कोई भी रखरखाव में लापरवाही नहीं बरतता. क्योंकि यह व्यवस्था ट्रस्ट से ज़्यादा उनकी है.
यह एक व्यवहारिक घटना है: लोग उस चीज का ध्यान रखते हैं, जिसे बनाने में वे मदद करते हैं. यही विश्वास के पीछे की इंजीनियरिंग है.
सामाजिक गुणक प्रभाव: जब आकार ने जल प्रबंधन में महारत हासिल कर ली, तो रुइया ने अपने मिशन का विस्तार किया, क्योंकि हर जल-सुरक्षित गांव एक संभावित शिक्षण स्थल है. ग्राममंगल जैसे संगठनों के साथ सहयोग के माध्यम से, आकार अब निम्नलिखित क्षेत्रों में निवेश करती है.
ग्राममंगल जैसे संगठनों के साथ काम:
- शिक्षक प्रशिक्षण और शिक्षा
- महिला सशक्तीकरण
- कौशल निर्माण और आजीविका विकास
जब हम उनसे पूछते हैं कि उन्हें क्या प्रेरित करता है, तो वह विनम्रता और स्पष्टता के मिश्रण वाले लहजे में जवाब देती हैं: “मैं चाहती हूं कि गांव अपने पैरों पर खड़े हों. जल शुरुआत है. शिक्षा निरंतरता है. गरिमा परिणाम है.”
भारत की जलवायु की कहानी तेज़ी से अप्रत्याशितता की कहानी बनती जा रही है… एक साथ बहुत ज़्यादा बारिश, जरूरत पड़ने पर बहुत कम. सहज प्रतिक्रिया अक्सर तकनीकी वृद्धि रही है: बड़ी नहरें, बड़ी पाइपलाइनें, गहरे बोरवेल. रुइया का दृष्टिकोण विरोधाभासी है. वह अतीत को देखती हैं, भविष्य को नहीं. वह भव्यता की बजाय लागत-प्रभावी समाधान चुनती हैं. और उनका मानना है कि समुदायों (ठेकेदारों को नहीं) को अपने परिवर्तन का नेतृत्व स्वयं करना चाहिए. कभी-कभी, आधुनिक दुनिया यह भूल जाती है कि सबसे सरल विचार ही स्थायी होते हैं. उनकी टीम अब सूखाग्रस्त राज्यों में और विस्तार करने की उम्मीद करती है, न केवल संरचनाओं का निर्माण, बल्कि जल जागरूकता की संस्कृति का निर्माण भी.
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